भारतीय संविधान…
कस्टडी यानी किसी को हिरासत में लेना और अरेस्ट (गिरफ्तार) करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत आजादी के अधिकार पर सीधा हमला है. इसलिए यह सुनिश्चित करने के लिए कानून में एक विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की गई है कि, किसी व्यक्ति को केवल कानूनी उद्देश्यों के लिए ही अधिकारी द्वारा उचित तार्किक और समानुपातिक तरीके से हिरासत में लिया जाय, वैसे कस्टडी यानी किसी को हिरासत में लेना और गिरफ्तार करना सुनने में एक जैसा लगता है लेकिन, दोनों अलग है गिरफ्तार करने का मतलब है किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत में लेना जबकि, हिरासत का मतलब किसी व्यक्ति पर नजर रखना या उसकी गतिविधियों पर आंशिक या पूरी तौर पर पाबंदी लगा देना लेकिन, यह सही है कि हर गिरफ्तारी में हिरासत होती है. लेकिन हर हिरासत में गिरफ्तारी नहीं होती है आमतौर, पर पुलिस की अपराध की छानबीन किसी अपराध को होने से रोकने और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किसी इंसान को गिरफ्तार करती है. गिरफ्तार करने से एक व्यक्ति की निजी आजादी खत्म हो जाती है वैसे कानून में अवैध गिरफ्तारी से एक व्यक्ति को बचाने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं.
पुलिस हिरासत और न्यायिका हिरासत में फर्क–पुलिस कस्टडी में आरोपी को पुलिस लॉकअप में रखा जाता है जबकि, जुडिशल कस्टडी में कोर्ट की कस्टडी यानी जेल में रखा जाता है. किसी संज्ञेय अपराध के लिए एफआईआर दर्ज करने के बाद पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है. गिरफ्तारी इस उद्देश्य से किया जाता है कि, साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ न हो या गवाहों को धमकाया नहीं जाए. जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए अभियुक्त को मजिस्ट्रेट के पास पेश किया जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं आरोपी को पुलिस हिरासत में या न्यायिक हिरासत में भेजना यह सीआरपीसी की धारा 167(2) के प्रावधानों से स्पष्ट है कि मजिस्ट्रेट को जो उचित लगता है उस प्रकार की कस्टडी वह आरोपी के लिए मुकर्रर कर सकता है. पुलिस हिरासत में पुलिस के पास आरोपी की शारीरिक हिरासत होगी इसलिए, जब पुलिस हिरासत में भेजा जायेगा तो आरोपी को पुलिस स्टेशन में बंद कर दिया जाएगा. उस परिदृश्य में पुलिस को पूछताछ के लिए आरोपी तक हर समय पहुंच होगी.
न्यायिक हिरासत में अभियुक्त मजिस्ट्रेट की हिरासत में होगा और उसे जेल भेजा जाएगा. न्यायिक हिरासत में रखे गये आरोपी से पूछताछ के लिए पुलिस को संबंधित मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी. मजिस्ट्रेट की अनुमति से ऐसी हिरासत के दौरान पुलिस द्वारा पूछताछ हिरासत की प्रकृति को बदल नहीं सकती है. पुलिस कस्टडी की अवधि पुलिस कस्टडी तब शुरू होती है जब पुलिस अधिकारी किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेता है जबकि, जुडिशल कस्टडी तब शुरू होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज देता है.
पुलिस कस्टडी की अवधि 24 घंटे की होती है. इन 24 घंटो के अंदर पुलिस को किसी कोर्ट के समक्ष आरोपी को पेश करना होता है लेकिन, जुडिशल कस्टडी की कोई तय समय-सीमा नहीं होती जब तक मामला चलता रहे या संदिग्ध आरोपी जमानत पर रिहा न हो जाए जुडिशल कस्टडी चलती रहती है. गिरफ्तारी के बाद मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी के पहले 15 दिनों के भीतर ही आरोपी को पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है. सीआरपीसी की धारा 167(दो) का उपबंध-ए कहता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत में 15 दिनों की अवधि से परे अभियुक्तों की हिरासत अवधि बढ़ाने की अनुमति दे सकता है.
सामान्य भाषा, खासकर “पुलिस की हिरासत से अन्यथा पंद्रह दिनों की अवधि से परे” शब्दों पर विचार करते हुए यह व्यवस्था दी गयी कि, पहले पंद्रह दिनों की समाप्ति के बाद 90 दिनों या 60 दिनों की शेष अवधि के लिए केवल न्यायिक हिरासत ही होगी तथा यदि पुलिस कस्टडी आवश्यक हुई तो इसका आदेश केवल पहले 15 दिनों के भीतर ही हो सकता है. अगर पुलिस किसी व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट दाखिल कर देती है तो फिर उस व्यक्ति को पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है. अगर किसी व्यक्ति की जमानत खारिज भी हो जाती है तो उसको पुलिस हिरासत में नहीं दिया जा सकता है. किसी भी अपराध जैसे हत्या, लूटपाट, अपहरण, चोरी, धमकी आदि के मामले में पुलिस कस्टडी होती है जबकि, कोर्ट की अवहेलना और अन्य मामलों में जुडिशल कस्टडी होती है. रिमांड के कानूनी जानकार बताते हैं कि किसी मामले में की गई गिरफ्तारी के बाद जांच एजेंसी पूछताछ के लिए आरोपी को रिमांड पर ले सकती है. आरोपी को गिरफ्तार कर अदालत में पेशी के बाद 14 दिनों तक पूछताछ के लिए रिमांड पर लिया जा सकता है हालांकि, जांच एजेंसी को अदालत को बताना होता है कि किस कारण रिमांड चाहिए इसके लिए उसे अदालत के सामने तथ्य पेश करने होते हैं और अदालत जब जांच एजेंसी की दलीलों से संतुष्ट होती है तभी, आरोपी को रिमांड पर भेजा जाता है.
सुप्रीम कोर्ट ने इन सवालों का जवाब सीबीआई बनाम दाऊद इब्राहिम कास्कर के फैसले में दिया था।(13) अदालत ने व्यवस्था दी कि, आगे की जांच के चरण में गिरफ्तार किये गये आरोपी के रिमांड का मामला धारा 167(दो) के तहत निपटा जाना चाहिए , न कि धारा 309(दो) के प्रावधानों के तहत. क्योंकि जहां तक उस आरोपी का संदर्भ है तो जांच अब भी जारी है और पुलिस को उसकी कस्टडी देने से इन्कार नहीं किया जा सकता. पुलिस रिमांड पर लिए जाने के बाद अगर आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाए और दोबारा जांच में कोई नया तथ्य सामने आ जाए और आरोपी से दोबारा पूछताछ की जरूरत हो तो आरोपी को दोबारा रिमांड पर लिया जा सकता है लेकिन, यह सब गिरफ्तारी के 14 दिनों के भीतर ही हो सकता है, उसके बाद नहीं.
अगर गिरफ्तारी के 14 दिनों बाद जांच एजेंसी को कोई पूछताछ करनी है तो वह अदालत की स्वीकृति मिलने के बाद आरोपी से जेल में पूछताछ कर सकती है. यदि परिस्थितियां न्यायोचित लगती हैं, तो सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा 167 (दो) के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित समय सीमा (15 दिन में) न्यायिक हिरासत में भेजे गये आरोपी को पुलिस हिरासत और पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेजा जा सकता है. कब मिलेगी जमानत पुलिस रिमांड के बाद आरोपी को जब तक जमानत न मिले, उसे न्यायिक हिरासत में रखने का प्रावधान है. चार्जशीट दाखिल होने तक आरोपी की न्यायिक हिरासत 14-14 दिनों के लिए बढ़ाई जाती है, जबकि चार्जशीट दाखिल होने के बाद न्यायिक हिरासत की अवधि मुकदमे की तारीख के हिसाब से बढ़ाई जाती है.
कानूनी जानकार ने बताया कि सीआरपीसी (Cr.P.C.) की धारा-167 (2) के तहत समय पर चार्जशीट दाखिल न किए जाने पर टेक्निकल ग्राउंड पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है. अगर आरोपी के खिलाफ ऐसा मामला दर्ज हो, जिसमें दस साल कैद से कम सजा का प्रावधान है तो टेक्निकल ग्राउंड पर आरोपी को जमानत दिए जाने का प्रावधान है, बशर्ते, जांच एजेंसी ने आरोपी की गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं किया हो. दस साल कैद या उससे ज्यादा सजा वाले मामले में अगर गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर आरोपी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, तो जमानत मिल जाती है.
वहीं, मकोका मामले में गिरफ्तारी के 30 दिनों तक पुलिस रिमांड पर लिए जाने का प्रावधान है. ऐसे मामले में अगर आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में दस साल से कम सजा का प्रावधान है तो चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिनों का समय होता है. इस अवधि में चार्जशीट नहीं होने पर आरोपी को जमानत मिल जाती है. मकोका कानून इतना सख्त है कि इसके लगने के बाद किसी को आसानी से जमानत नहीं मिल सकेगी. मकोका के बाद उम्रकैद तक की सज़ा का प्रावधान है. दस साल से ज्यादा सजा वाले मामले में 180 दिनों तक चार्जशीट दाखिल नहीं होने पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है.
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Indian Constitution….
Custody means taking someone into custody and arresting (arresting) is a direct attack on the right to personal liberty under Article 21 of the Indian Constitution. Therefore, a detailed procedure has been laid down in the law to ensure that a person is detained by an officer only for legal purposes in a reasonable, reasonable, and proportionate manner. It sounds similar but, both are different Arrest means to take a person into police custody whereas, Custody means to keep watch on a person or to restrict his/her movements partially or completely but, it is correct That in every arrest there is detention. But every custody does not result in an arrest. Usually, in the investigation of a crime, the police arrest a person in order to prevent the commission of a crime and to prevent harm to a person or persons. Arresting a person’s personal freedom ends, however, many provisions have been made in the law to save a person from illegal arrest.
Difference between Police Custody and Judicial Custody – In Police Custody, the accused is kept in Police Lockup whereas, in Judicial Custody, he is kept in Court Custody i.e. Jail. After registering an FIR for a cognizable offense, the police can arrest an accused. The arrest is made so that the evidence is not tampered with or the witnesses are not intimidated. When the accused arrested by the police is produced before the Magistrate, he has two options to send the accused to police custody or to judicial custody. It is clear from the provisions of Section 167(2) of Cr.P.C. It seems that he can appoint that type of custody for the accused. In police custody, the police will have physical custody of the accused, therefore, when sent to police custody, the accused will be locked up in the police station. In that scenario, the police would have access to the accused at all times for questioning.
In judicial custody, the accused will be in the custody of the magistrate and will be sent to jail. To interrogate the accused kept in judicial custody, the police will have to take the permission of the concerned magistrate. Interrogation by the police during such custody with the permission of the Magistrate cannot alter the nature of the custody. Duration of Police Custody Police custody begins when the police officer arrests a suspect whereas, judicial custody begins when the judge sends the accused from police custody to jail.
The duration of police custody is 24 hours. Within these 24 hours, the police have to present the accused before a court, but there is no fixed time limit for judicial custody, as long as the case continues or the suspected accused is released on bail, judicial custody continues. After the arrest, the accused can be sent to police custody within the first 15 days of being produced before the magistrate. Clause-A of Section 167(ii) of CrPC states that the Magistrate may allow an extension of the custody of the accused beyond 15 days in police custody.
Considering the common language, especially the words “beyond the period of fifteen days otherwise than in the custody of the police”, it was held that judicial custody shall be only for the remaining period of 90 days or 60 days after the expiry of the first fifteen days. And if police custody is necessary, then it can be ordered only within the first 15 days. If the police file a charge sheet against a person, then that person cannot be kept in police custody. Even if the bail of a person is rejected, he cannot be given in police custody. Police custody is there in case of any crime like murder, robbery, kidnapping, theft, intimidation, etc. whereas, judicial custody is there in contempt of court and in other cases. Legal experts of remand say that after the arrest is made in a case, the investigating agency can take the accused on remand for questioning. The accused can be arrested and taken on remand for interrogation for 14 days after being produced in the court, however, the investigating agency has to tell the court why remand is required, for this it has to present the facts before the court and when the court When the investigation is satisfied with the agency’s arguments, the accused is sent on remand.
These questions were answered by the Supreme Court in CBI v. Dawood Ibrahim Kaskar. (13) The court held that the matter of remand of the accused arrested at the stage of further investigation is to be dealt with under section 167(ii). should, and not under the provisions of section 309 (ii). Because as far as the accused is concerned, the investigation is still going on and the police cannot be denied his custody. After being taken on police remand, if the accused is sent to judicial custody and in the re-investigation, any new facts come to the fore and there is a need for re-interrogation of the accused, then the accused can be taken on remand again, but, all this after the arrest. Can happen within 14 days only, not after that.
If the investigating agency has to make any inquiry after 14 days of arrest, then after getting the approval of the court, it can interrogate the accused in jail. If circumstances so warrant, the accused is sent to judicial custody within the stipulated time limit (15 days) as per the provisions mentioned under section 167(ii) of Cr.P.C., and from police custody to judicial custody May go. When will you get bail After police remand, there is a provision to keep the accused in judicial custody until he gets bail. Till the filing of the charge sheet, the judicial custody of the accused is extended for 14-14 days, while after the filing of the charge sheet, the period of judicial custody is extended according to the date of the trial.
The legal expert said that under Section-167 (2) of CrPC (Cr.P.C.), there is a provision to grant bail on technical grounds if the charge sheet is not filed on time. There is a provision to grant bail to the accused on technical grounds if the accused is booked in a case punishable with imprisonment for less than ten years, provided the investigating agency has not filed a charge sheet within 60 days of the arrest of the accused. In case of imprisonment of ten years or more, if the charge sheet is not filed against the accused within 90 days of arrest, then bail is granted.
At the same time, in the MCOCA case, there is a provision to be taken on police remand for 30 days after the arrest. In such a case, if there is a provision of punishment of fewer than ten years in the case registered against the accused, then there is a time of 90 days to file the charge sheet. If there is no charge sheet in this period, the accused gets bail. The MCOCA law is so strict that no one will be able to get bail easily after its implementation. After MCOCA, there is a provision of punishment up to life imprisonment. There is a provision to grant bail if the charge sheet is not filed for 180 days in a case with a sentence of more than ten years.
Prabhakar Kumar.