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गलियों का शहर और उड़ता गुबार …

अध्याय 3: सुरंग का रहस्य और एक अनसुनी धुन

सुरंग के मुहाने पर खड़ा आलोक हिचकिचाया. अंदर का अंधेरा इतना घना था कि अपनी हथेली भी नहीं दिख रही थी. लेकिन उसके भीतर की उत्सुकता किसी भी डर से बड़ी थी. उसने अपने मोबाइल की टॉर्च जलाई और धीरे-धीरे अंदर कदम रखा. सुरंग संकरी थी, और हर कदम पर पैरों के नीचे से धूल का फुहार उठता था. हवा में एक अजीब-सी गंध थी—मिट्टी, नमी और कुछ ऐसा जो बहुत पुराना था, जैसे सदियों पहले की साँसें.

सुरंग थोड़ी दूर जाकर चौड़ी हो गई. आलोक ने देखा कि दीवारें अब केवल मिट्टी की नहीं थीं, बल्कि उन पर कुछ प्रतीक और आकृतियाँ खुदी हुई थीं, जो किसी प्राचीन लिपि जैसी दिखती थीं. वे धूल की मोटी परत से ढकी थीं, लेकिन टॉर्च की रोशनी में वे अस्पष्ट रूप से चमक रही थीं.

जैसे-जैसे आलोक आगे बढ़ा, उसे एक धीमी, अस्पष्ट सी धुन सुनाई देने लगी. यह किसी संगीत वाद्ययंत्र की धुन नहीं थी, बल्कि हवा के चलने या पत्थरों के आपस में टकराने जैसी एक लयबद्ध आवाज़ थी. यह धुन उसके मन में एक अजीब-सी बेचैनी पैदा कर रही थी, जैसे यह उसे किसी अनजाने खतरे की चेतावनी दे रही हो, या शायद किसी गहरे रहस्य की ओर इशारा कर रही हो.

धुन और तेज़ होती गई, और आलोक को लगा कि वह किसी बड़े कक्ष में पहुँच रहा है. उसकी टॉर्च की रोशनी में एक विशाल, गोलाकार कक्ष दिखाई दिया. कक्ष के केंद्र में एक बड़ा, वर्गाकार पत्थर का आसन था, और उस आसन पर… आलोक की साँसें थम गईं.

वहाँ कुछ भी नहीं था. केवल और केवल धूल. धूल का एक विशाल ढेर, जो आसन को पूरी तरह से ढके हुए था. उसे लगा जैसे उसके सारे प्रयास व्यर्थ हो गए हों. क्या यह अंत था?

लेकिन तभी, धुन और तीव्र हुई, और आलोक ने देखा कि धूल के ढेर के ठीक ऊपर हवा में कुछ चमकदार कण तैर रहे थे. वे कण छोटे-छोटे थे, जैसे सोने की धूल, और वे एक धीमी, गोलाकार गति में घूम रहे थे. वे धुन के साथ तालमेल बिठाकर घूमते लग रहे थे.

आलोक ने अपना हाथ बढ़ाया। जैसे ही उसकी उंगलियाँ उन कणों के पास पहुँचीं, उसे एक अजीब-सी ऊर्जा महसूस हुई. वे कण सिर्फ धूल नहीं थे; वे प्रकाश और ऊर्जा का मिश्रण थे. और जब उसने उन्हें छुआ, तो उसके दिमाग में एक चित्र कौंधा.

यह एक क्षणिक झलक थी: एक प्राचीन मंदिर, जहाँ लोग किसी देवी की पूजा कर रहे थे. आकाश में एक लाल चाँद था, और हवा में धूल के बवंडर उठ रहे थे. लोग चिल्ला रहे थे, भाग रहे थे, और मंदिर के केंद्र में एक पुरोहित कुछ मंत्र पढ़ रहा था। वही पुरोहित – वासुदेव!

यह ‘कायापलट की रात’ का दृश्य था!

आलोक ने अपनी आँखें मलते हुए पीछे हटा. धूल के कण अभी भी घूम रहे थे, और धुन अभी भी बज रही थी. क्या ये कण अतीत की यादें थे, जिन्हें पुरोहित ने किसी तरह इस धूल में कैद कर दिया था?

उसने फिर से हाथ बढ़ाया, और इस बार, उसने अधिक देर तक उन कणों को छुआ. इस बार, चित्र अधिक स्पष्ट था. उसने पुरोहित वासुदेव को देखा, जो एक बड़ी हस्तलिपि को एक पत्थर के बक्से में बंद कर रहा था. उसके चेहरे पर चिंता और दृढ़ संकल्प के भाव थे. उसने बक्से को एक गुप्त स्थान पर छिपाया, और फिर, जैसे ही मंदिर ढहने लगा, वह खुद भी धूल में समा गया.

तो हस्तलिपि यहाँ थी! कहीं इस कक्ष में, धूल के नीचे.

धुन अब एक मंत्र जैसी लग रही थी, जैसे वह आलोक को कोई संदेश दे रही हो. वह मंत्र एक भाषा में था जिसे आलोक समझ नहीं पा रहा था, लेकिन वह जानता था कि यह उस रहस्य का हिस्सा था जिसे वह उजागर करने आया था.

अचानक, धुन रुक गई. चमकदार कण भी गायब हो गए, और कक्ष में फिर से वही गहरा अंधेरा छा गया. आलोक को लगा जैसे उसे किसी ने नींद से जगाया हो. उसे पता चल गया था कि उसे अब क्या करना है. उसे उस पत्थर के बक्से को खोजना था, जो इस धूल के समुद्र के नीचे कहीं छिपा हुआ था.

लेकिन वह कैसे करेगा? और क्या वह अकेला ही था जो इस रहस्य को खोज रहा था? अंबरपुर की गलियों और उसकी उड़ती धूल में और कौन से रहस्य छिपे थे, जो अभी तक सामने नहीं आए थे?

शेष भाग अगले अंक में…,

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