
क्या सम्पूर्ण क्रान्ति बस… एक नारा था?
“सम्पूर्ण क्रान्ति” का नारा वर्ष 1970 के दशक में भारतीय राजनीति के आकाश में एक विद्युत-चमक की तरह कौंधा था, और इसका उद्गम स्थल था बिहार.जयप्रकाश नारायण (जेपी) के मुखर नेतृत्व में यह आंदोलन न सिर्फ एक सरकार को बदलने के लिए, बल्कि एक व्यवस्था को उलटने के लिए खड़ा हुआ था. लेकिन आज, लगभग पाँच दशक बाद, एक सवाल बार-बार उठता है: – क्या सम्पूर्ण क्रान्ति वास्तव में कोई ठोस परिवर्तन ला पाई, या यह महज एक भावनात्मक नारा बनकर रह गया?
वर्ष 1970 का दशक बिहार और भारत के लिए एक उथल-पुथल भरा दौर था. तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे, महँगाई, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता चरम पर थी, युवा वर्ग भविष्य को लेकर आशंकित और क्रोधित था. बिहार में यह असंतोष विशेष रूप से तीव्र था, जनता का लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं से मोहभंग हो रहा था. इसी ज्वलंत परिस्थिति में 1974 में जयप्रकाश नारायण ने बिहार के छात्र आंदोलन का नेतृत्व संभाला और “सम्पूर्ण क्रान्ति” का आह्वान किया.
सम्पूर्ण क्रान्ति महज एक राजनीतिक नारा नहीं था। जेपी ने इसे सात क्रांतियों के एक समूह के रूप में परिभाषित किया था: –
1. | राजनीतिक क्रांति | भ्रष्ट और तानाशाही सरकारों का विरोध. |
2. | आर्थिक क्रांति | आर्थिक विषमता को दूर करना. |
3. | सामाजिक क्रांति | जातिवाद, छुआछूत और सामंती प्रथाओं का अंत |
4. | सांस्कृतिक क्रांति | राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण |
5. | बौद्धिक क्रांति | नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना |
6. | शैक्षणिक क्रांति | शिक्षा प्रणाली में सुधार,
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7. | आध्यात्मिक क्रांति | नैतिक मूल्यों का उत्थान. |
स्पष्ट है कि यह एक ऐसी “कुल क्रांति” का सपना था, जो व्यक्ति के मन से लेकर समाज और राज्य के हर ताने-बाने को बदलने का दावा करती थी. तत्कालिक रूप से, सम्पूर्ण क्रान्ति एक जबर्दस्त सफलता थी. इस आंदोलन ने ही वर्ष 1975 में लगी इंदिरा गांधी की आपातकाल की नींव हिला दी.। जेपी की “लोकतंत्र बचाओ” की अपील जन-जन तक पहुँची. वर्ष 1977 के चुनाव में पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार (जनता पार्टी) बनी. बिहार में भी कांग्रेस की सत्ता समाप्त हुई. इस आंदोलन ने समाज के हर वर्ग, खासकर युवाओं और ग्रामीणों, को राजनीतिक रूप से सक्रिय किया. इसी आंदोलन से निकले नेताओं (जैसे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली आदि) ने अगले कई दशकों तक देश की राजनीति को प्रभावित किया. इस दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण क्रान्ति एक “राजनीतिक भूकंप” साबित हुई, जिसने देश की राजनीतिक दिशा ही बदल दी थी.
बिहार के संदर्भ में कड़वी सच्चाई यह है कि, यह नारा अपने लक्ष्यों से भटकता हुआ दिखाई देता है. बिहार, जो इस क्रांति का केंद्र था, आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिनके खिलाफ यह आंदोलन खड़ा हुआ था. सम्पूर्ण क्रान्ति ने सामाजिक न्याय की बात की थी, लेकिन इसके बाद बिहार की राजनीति में जातिवाद पहले से कहीं अधिक संस्थागत और शक्तिशाली हो गया. मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद तो जाति ही राजनीतिक पहचान और गठबंधन का केंद्रीय आधार बन गई.
कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन, भ्रष्टाचार के नए-नए रूपों का साक्षी बना. वर्ष 1990 के दशक में फैला चारा घोटाला इसका ज्वलंत उदाहरण है. बिहार आज भी देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है. औद्योगिक विकास नगण्य है, बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है और राज्य की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर निर्भर है. “आर्थिक क्रांति” का सपना अधूरा रह गया. वर्ष 1990 और वर्ष 2000 के दशक में बिहार कानून-व्यवस्था के संकट से जूझा. जेपी जिस “नैतिक शक्ति” की बात करते थे, उसके विपरीत, अपराधीकरण की राजनीति ने जोर पकड़ा. सम्पूर्ण क्रान्ति एक विचार था, लेकिन इससे उपजी राजनीति जल्दी ही व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और सत्ता की लड़ाई में बदल गई. जेपी के आदर्शों को तिलांजलि दे दी गई.
तो, क्या सम्पूर्ण क्रान्ति सिर्फ एक नारा था? नहीं, केवल एक नारा नहीं था. यह एक ऐतिहासिक आंदोलन था जिसने भारतीय लोकतंत्र को एक निर्णायक मोड़ दिया. इसने सत्ता के गलियारों में सामान्य जन की आवाज को बुलंद किया और यह साबित किया कि जनशक्ति सत्ता के दंभ को चुनौती दे सकती है. इसने एक पूरी पीढ़ी को राजनीतिक रूप से साक्षर बनाया. लेकिन हाँ, यह अपने ‘सम्पूर्ण’ लक्ष्यों को प्राप्त करने में विफल रहा, खासकर बिहार के संदर्भ में. यह एक ऐसी क्रांति थी जिसने राजनीतिक सत्ता का रुख तो बदल दिया, लेकिन सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को मूलतः हिला नहीं पाई. इसके विपरीत, इसने कुछ नई समस्याएँ भी पैदा कीं.
अंततः, सम्पूर्ण क्रान्ति एक शक्तिशाली विचार था जो एक शक्तिशाली राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हुआ, लेकिन एक स्थायी सामाजिक-आर्थिक क्रांति बनने में असफल रहा. यह बिहार के इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है, लेकिन साथ ही एक ऐसा अधूरा सपना भी है, जिसकी पूर्ति का इंतजार आज भी जारी है. यह हमें यह सबक देती है कि सत्ता परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन में बहुत बड़ा अंतर होता है. बिहार आज भी उस “सम्पूर्ण क्रांति” की प्रतीक्षा में है, जो सचमुच उसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में एक मौलिक परिवर्तन ला सके.
संजय कुमार सिंह,
(पोलिटिकल, सहायक एडिटर) ,
ज्ञानसागरटाइम्स.