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सुरमई शाम…

धुंधला स्केच

वह शाम कुछ अलग थी. खिड़की से छनकर आता नारंगी-गुलाबी प्रकाश कमरे को किसी चित्र की तरह रंग रहा था. लेकिन कलाकार आरव की आँखों में उस शाम का कोई रंग नहीं था—सिर्फ एक धुंधली परछाईं.

वह हर शाम अपनी खिड़की के सामने बैठकर स्केच बनाता था. कभी बादलों की बनावट, कभी सड़कों पर गुजरते लोगों की हलचल. पर आज उसके कैनवास पर उभरता चेहरा उसे चौंका रहा था. यह आकृति अनजानी थी, फिर भी पहचानी.

उसकी उंगलियाँ जैसे किसी याद को छू रही थीं—एक भूला हुआ रिश्ता, एक अधूरा सपना। धीरे-धीरे पेंसिल की रेखाएँ स्पष्ट होने लगीं, और तभी बाहर गलियारे से किसी के कदमों की आहट आई.

क्या यह वही चेहरा था जो उसने कैनवास पर उकेरा? या उसकी कल्पना ने अतीत को फिर से जीवंत कर दिया था?

शेष भाग अगले अंक में…,

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