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अंतिम विदाई…

एक प्रेम कथा का मर्मांतक अंत

स्थान:

यमुना नदी का घाट, सुबह 4:30 बजे

कोहरे में लिपटी सुबह, पक्षियों का मौन

अस्थियों का अंतिम सफर

गायत्री ने काँपते हाथों से नलिन की अस्थियाँ नदी में प्रवाहित कीं. हर मुट्ठी के साथ उसके आँसू भी बह रहे थे.

नलिन की आखिरी कविता, जो उसने अपनी डायरी में लिखी थी, वह भी पानी में बह गई,

“मैं जानता हूँ तुम मुझे भूल जाओगी…

पर ये नदी कभी नहीं भूल पाएगी

कैसे मेरे आखिरी आँसू

तुम्हारी यादों में मिल गए…”

डॉ. आर्यन का प्रायश्चित

डॉ. आर्यन दूर खड़ा देख रहा था. उसने गायत्री की ओर नलिन की अंतिम चिट्ठी बढ़ाई,:

“माफ करना गायत्री… मैंने तुम्हारी कॉफी में वो दवा डाली थी जिससे नलिन पागल हुआ. मैं… मैं तुम्हें पाना चाहता था.”

गायत्री ने चिट्ठी को नदी में फेंक दिया – माफी और घृणा दोनों के बिना.

सुलेखा का सवाल

सुलेखा ने पूछा: “अब तुम क्या करोगी?”

गायत्री ने अपने स्टेथोस्कोप को छुआ, जिस पर अब भी नलिन की लिखावट थी,

“मैं उस ‘कैफे लैटिना’ को खोलूँगी जिसका उसने सपना देखा था… जहाँ हर कप पर उसकी कविताएँ लिखी होंगी.”

दो छायाएँ-

सूरज की पहली किरण ने नदी पर दो परछाइयाँ बनाईं,

गायत्री – जीवित, पर अधूरी

नलिन – मृत, पर अमर

नदी की लहरों ने दोनों को एक कर दिया.

उपन्यास का अंतिम शब्द: –

“प्रेम कभी मरता नहीं… वह सिर्फ़ विदाई का रूप ले लेता है.”

~ समाप्त ~

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