
नलिन का बाथरूम, रात के 3:17 बजे,
मौसम-: बाहर बारिश की मूक बौछारें,
भूतकाल की छाया,
टूटे हुए शीशे के सामने नलिन खड़ा था. उसकी परछाई उसे घूर रही थी, मानो कोई अजनबी हो. शीशे पर लिखा उसका खून से सना संदेश अब धुंधला पड़ रहा था.
“गायत्री = नलिन ”
उसने अपनी कलाई की नसों को टटोला, वही नसें जो कभी गायत्री के नाम से धड़कती थीं.
वर्तमान का कोलाहल,
गायत्री (दरवाज़ा तोड़कर अंदर आती है),
“नलिन ! ये क्या कर रहे हो? पूरा बाथरूम खून से…”
नलिन (अस्पष्ट मुस्कान के साथ),
” शीशा तोड़कर देख रहा था… कौन सा प्रतिबिम्ब सच्चा है ? वो जो तुम देखती हो या वो जो मैं महसूस करता हूँ?”
भावनाओं का विस्फोट,
गायत्री ने उसके हाथ में पकड़ी रेजर छीन ली. नलिन ने अपनी खुली हथेली उसकी ओर बढ़ाई, हर उंगली पर गायत्री का नाम खुदा था.
नलिन (रोते-हँसते हुए),
“देखो ! मैंने तुम्हें अपनी त्वचा में उतार लिया है. अब तुम कैसे कहोगी कि मैं पागल हूँ?”
गायत्री (सिसकती हुई),
” ये प्यार नहीं… ये तो खुदकुशी है ! तुम मरकर मुझे जिंदा दफन कर रहे हो!”
दर्पण का अंतिम सच,
नलिन ने टूटे शीशे के एक टुकड़े को उठाया, उसमें उसका चेहरा टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा हुआ था,
नलिन (शांत स्वर में),
” समझ गया… मैं बिखर चुका हूँ. तुम्हारा प्यार ही मेरी आखिरी दवा थी… और वो भी नकली निकली.”
बाहर बारिश तेज हो गई. टप-टप की आवाज़ें उसके आँसुओं से मिल गईं.
सारांश: –
प्रतीकवाद- टूटा दर्पण = टूटा मानसिक संतुलन
नाटकीय तत्व- खून से लिखे नाम = विकृत प्रेम की अभिव्यक्ति
मोड़- गायत्री का एहसास है कि यह रिश्ता अब उसकी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि उसके जीवन के लिए खतरा बन चुका है.
प्रश्न:
क्या यह आत्म-विनाश है या फिर प्रेम का चरमोत्कर्ष?
क्या गायत्री को भाग जाना चाहिए या और अधिक डूब जाना चाहिए?
शेष भाग अगले अंक में…,