महाराजा सवाई जयसिंह
महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय एक महान भारतीय शासक, खगोलशास्त्री और वास्तुकार थे, जिन्होंने राजस्थान के आमेर राज्य (आधुनिक जयपुर) पर शासन किया. उनका जन्म 3 नवंबर 1688 को हुआ था और वे कछवाहा वंश के राजा थे. सवाई जयसिंह ने जयपुर शहर की स्थापना की और भारतीय खगोलशास्त्र और वास्तुकला में अद्वितीय योगदान दिया. वे अपने ज्ञान, विज्ञान, और शासन के लिए प्रसिद्ध थे.
सवाई जयसिंह का जन्म आमेर में राजा बिशन सिंह के घर हुआ था. वर्ष 1699 में, अपने पिता की मृत्यु के बाद, उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में आमेर के राजा का पद संभाला. वे मुगल सम्राट औरंगजेब के शासनकाल में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे, और मुगलों के साथ उनके संबंध हमेशा अच्छे रहे.
सवाई जयसिंह द्वितीय ने वर्ष 1727 में जयपुर की स्थापना की, जो भारतीय शहरी नियोजन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. जयपुर को वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर एक योजनाबद्ध शहर के रूप में डिज़ाइन किया गया था, और इसे गुलाबी नगरी के नाम से भी जाना जाता है. जयपुर का निर्माण महान वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य की देखरेख में हुआ.
सवाई जयसिंह खगोलशास्त्र में गहरी रुचि रखते थे और उन्होंने भारतीय खगोलशास्त्र को आधुनिक रूप में प्रस्तुत किया. उन्होंने देशभर में पाँच खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण करवाया, जिन्हें जंतर मंतर कहा जाता है. ये वेधशालाएँ जयपुर, दिल्ली, मथुरा, वाराणसी और उज्जैन में स्थित हैं. इन वेधशालाओं में कई खगोलीय उपकरण हैं, जिनका उपयोग आकाशीय पिंडों की स्थिति और समय मापने के लिए किया जाता है.
जंतर मंतर, जयपुर – यह उनकी सबसे प्रमुख वेधशाला है और इसका समृद्ध खगोलीय महत्व है. इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी गई है.
जंतर मंतर, दिल्ली – दिल्ली का जंतर मंतर भी एक प्रसिद्ध वेधशाला है, जो उनके विज्ञान और खगोलशास्त्र में गहरे योगदान को दर्शाती है.
सवाई जयसिंह ने खगोलशास्त्र, गणित और ज्योतिष के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने संस्कृत के कई विद्वानों और वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया और कई ग्रंथों का अनुवाद भी करवाया. उन्होंने तत्कालीन दुनिया के नवीनतम खगोलीय उपकरणों का अध्ययन करने के लिए कई विद्वानों को विदेश भेजा.
सवाई जयसिंह को “सवाई” की उपाधि मुगल सम्राट औरंगजेब ने दी थी, जिसका अर्थ है “सवा” यानी एक से सवा गुणा अधिक. यह उपाधि उनकी बुद्धिमानी, योग्यता, और नेतृत्व क्षमता को दर्शाती है. सवाई जयसिंह द्वितीय का निधन 21 सितंबर 1743 को हुआ. वे अपने समय के सबसे कुशल शासकों में से एक थे. उनके द्वारा बनाए गए जंतर मंतर और जयपुर शहर आज भी उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण और शासकीय कौशल की याद दिलाते हैं.
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कर्नाटक गायिका देवदासी बैंगलोर नागरत्नम्मा
बैंगलोर नागरत्नम्मा कर्नाटक संगीत की मशहूर गायिका, सांस्कृतिक कार्यकर्ता, विद्वान और एक प्रभावशाली देवदासी थीं. उनका जन्म 03 नवंबर 1878 को कर्नाटक के नंजनगुड में एक गरीब परिवार में हुआ था. नागरत्नम्मा ने कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए भी संगीत और साहित्य में खुद को स्थापित किया. वे संस्कृत और तेलुगु में विद्वान थीं और अपनी संगीत प्रतिभा के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध थीं.
नागरत्नम्मा ने कर्नाटक संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया. वे उत्कृष्ट गायिका थीं और अपनी कला में दक्षता के कारण समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया. नागरत्नम्मा ने प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार संत त्यागराज की स्मृति में त्यागराज आराधना के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने तिरुवयारु (तमिलनाडु) में संत त्यागराज के समाधि स्थल का निर्माण करवाया और वहां वार्षिक संगीत महोत्सव की परंपरा शुरू की, जिसे आज भी श्रद्धा से मनाया जाता है.
नागरत्नम्मा संस्कृत और तेलुगु में विद्वान थीं। उन्होंने कई धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों का संपादन और प्रकाशन किया. विशेष रूप से, उन्होंने संत त्यागराज की कृतियों का संरक्षण किया और उनकी रचनाओं को प्रकाशित किया, जिससे त्यागराज के साहित्य को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने में मदद मिली. देवदासी समुदाय की अधिवक्ता: नागरत्नम्मा ने देवदासी समुदाय के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया. उन्होंने देवदासी परंपरा में महिलाओं की स्थिति सुधारने का प्रयास किया और समाज में उनके योगदान को मान्यता दिलाने के लिए आवाज उठाई.
बैंगलोर नागरत्नम्मा का निधन 19 मई 1952 को हुआ था. उनका जीवन और योगदान भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा है. उन्होंने कर्नाटक संगीत के प्रचार-प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाई और अपने सामाजिक कार्यों के माध्यम से समाज में एक मिसाल कायम की. उनकी स्मृति में संगीत और कला के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों को श्रद्धा से याद किया जाता है.
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मुख्य न्यायाधीश सर हरिलाल जे कनिया
सर हरिलाल जेकिसुनदास कनिया स्वतंत्र भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश थे. उनका कार्यकाल भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण समय था, क्योंकि उस समय भारत में नई संवैधानिक व्यवस्था और न्यायिक प्रणाली की शुरुआत हुई थी. उनका जन्म 3 नवंबर 1890 को हुआ था और उनका देहांत 6 नवंबर 1951 को हुआ.
सर हरिलाल कनिया का जन्म एक प्रतिष्ठित गुजराती परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में पूरी की और फिर इंग्लैंड के प्रतिष्ठित लिंकन्स इन से कानून की पढ़ाई की. उनकी शिक्षा और अद्भुत ज्ञान के कारण वे भारत में कानूनी मामलों में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके.
बॉम्बे हाई कोर्ट में न्यायाधीश: सर हरिलाल कनिया ने अपना न्यायिक कैरियर बॉम्बे हाई कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में शुरू किया और वहाँ उनके फैसलों को गंभीरता से लिया गया. उनका कानूनी ज्ञान और निष्पक्षता उनके कार्यों में स्पष्ट झलकता था. जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो वर्ष 1950 में उन्होंने स्वतंत्र भारत के पहले मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली. भारतीय संविधान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का पहला गठन उनके कार्यकाल में ही हुआ.
सर हरिलाल कनिया ने संविधान की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में भारतीय न्यायालयों ने संवैधानिक मामलों पर कई ऐतिहासिक फैसले दिए. उन्होंने भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने में विशेष योगदान दिया. वे न्यायिक स्वायत्तता और निष्पक्षता के सशक्त समर्थक थे. उनके कार्यकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फैसले दिए गए, जिन्होंने भारतीय न्यायपालिका को एक नई दिशा दी. उन्होंने स्वतंत्रता के बाद न्यायपालिका के स्वरूप और सिद्धांतों को परिभाषित करने का कार्य किया.
सर हरिलाल कनिया को उनकी सेवाओं के लिए “सर” की उपाधि से सम्मानित किया गया था. उनके बाद आने वाले मुख्य न्यायाधीशों के लिए वे प्रेरणा का स्रोत बने. भारतीय न्यायपालिका के विकास में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाता है. उनके नेतृत्व में भारत में एक सशक्त और स्वतंत्र न्यायपालिका की नींव रखी गई, जो आज भी भारत के लोकतंत्र और संविधान की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है.
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पृथ्वीराज कपूर
पृथ्वीराज कपूर भारतीय सिनेमा और रंगमंच के महान अभिनेता थे. उनका जन्म 3 नवंबर 1906 को पाकिस्तान के लायलपुर (अब फैसलाबाद) में हुआ था. वे भारतीय सिनेमा के पितामह माने जाते हैं और कपूर परिवार के संस्थापक थे, जिसने भारतीय फिल्म उद्योग में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया. पृथ्वीराज कपूर का असली नाम पृथ्वीनाथ कपूर था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पेशावर में प्राप्त की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए. उनकी अभिनय में रुचि बचपन से ही थी और वे स्कूल के नाटकों में हिस्सा लेते थे.
पृथ्वीराज कपूर ने वर्ष 1928 में मूक फिल्म ‘सिन्धु’ से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की. वर्ष 1931 में आई भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलम आरा’ में भी उन्होंने अभिनय किया, जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई. पृथ्वीराज कपूर ने वर्ष 1944 में ‘पृथ्वी थियेटर्स’ की स्थापना की, जो भारतीय रंगमंच के विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ. पृथ्वी थियेटर्स के माध्यम से उन्होंने कई महत्वपूर्ण नाटकों का मंचन किया और भारतीय रंगमंच को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया.
प्रमुख फिल्मों: – ‘सिकंदर’ (1941), ‘विद्यापति’ (1937), ‘मुगल-ए-आज़म’ (1960) – इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गया अकबर का किरदार आज भी अमर है और ‘आवारा’ (1951) – इस फिल्म में उन्होंने अपने बेटे राज कपूर के साथ काम किया.
पृथ्वीराज कपूर के तीन बेटे – राज कपूर, शम्मी कपूर और शशि कपूर – भारतीय सिनेमा के प्रमुख अभिनेता बने. कपूर परिवार आज भी भारतीय फिल्म उद्योग में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. पृथ्वीराज कपूर को वर्ष 1969 में भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया. वर्ष 1971 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ से नवाजा गया.
पृथ्वीराज कपूर का निधन 29 मई 1972 को हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है. पृथ्वीराज कपूर का योगदान भारतीय सिनेमा और रंगमंच के लिए अमूल्य है. उनकी मेहनत, प्रतिभा और समर्पण ने उन्हें एक महान कलाकार और भारतीय सिनेमा का आधार स्तंभ बना दिया. उनके कार्यों और योगदानों को सदैव याद किया जाएगा.
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अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन
अमर्त्य सेन एक विख्यात भारतीय अर्थशास्त्री और दार्शनिक हैं, जिन्होंने अर्थशास्त्र और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उनका जन्म 3 नवंबर 1933 को पश्चिम बंगाल के संतिनिकेतन में हुआ था. अमर्त्य सेन को वर्ष 1998 में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, और यह सम्मान उन्हें विशेष रूप से उनकी “वेलफेयर इकोनॉमिक्स” और “कैपेबिलिटी एप्रोच” के लिए दिया गया, जिसमें उन्होंने गरीबी, भूख, और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों पर गहन अध्ययन किया.
अमर्त्य सेन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा ढाका (अब बांग्लादेश) और फिर संतिनिकेतन में प्राप्त की. इसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की और फिर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से अपनी उच्च शिक्षा पूरी की. उन्होंने कई प्रमुख शिक्षण संस्थानों जैसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षण कार्य किया है.
अमर्त्य सेन का यह सिद्धांत मानता है कि आर्थिक विकास का उद्देश्य केवल आय बढ़ाना नहीं, बल्कि लोगों को उन चीजों को प्राप्त करने में सक्षम बनाना है जो उन्हें अपने जीवन में महत्वपूर्ण लगती हैं. इसके अनुसार, गरीबी केवल आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं है, बल्कि यह अवसरों और जीवन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं की कमी भी है.
सेन ने वेलफेयर इकोनॉमिक्स में अपने सिद्धांतों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि आर्थिक नीतियाँ लोगों के जीवन स्तर को सुधारने पर आधारित होनी चाहिए, न कि केवल अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर. उनके सिद्धांत ने वैश्विक संस्थानों और सरकारों को यह समझने में मदद की कि आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास भी महत्वपूर्ण है.
अमर्त्य सेन ने कई देशों में खाद्य सुरक्षा और भुखमरी पर शोध किया और यह बताया कि अधिकांश भूख के मामले संसाधनों की कमी के कारण नहीं, बल्कि खाद्य वितरण और राजनीतिक कारणों से होते हैं. उन्होंने भारत और अन्य विकासशील देशों में भी भूखमरी के कारणों की विस्तृत व्याख्या की.
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा जारी किए गए मानव विकास सूचकांक का विकास अमर्त्य सेन के “कैपेबिलिटी एप्रोच” से प्रेरित है. यह सूचकांक शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर के मापदंडों के आधार पर देशों के विकास का मूल्यांकन करता है.
अमर्त्य सेन ने कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: –
“पॉवर्टी एंड फेमाइंस” (1981) – इसमें उन्होंने गरीबी और भुखमरी के विभिन्न कारणों का विश्लेषण किया.
“डेवलपमेंट ऐज़ फ्रीडम” (1999) – इस पुस्तक में उन्होंने यह बताया कि विकास का उद्देश्य लोगों की स्वतंत्रता को बढ़ाना होना चाहिए.
“द आइडिया ऑफ जस्टिस” (2009) – इसमें उन्होंने न्याय और समाज के लिए न्यायपूर्ण नीति बनाने पर अपने विचार प्रस्तुत किए.
सम्मान और पुरस्कार: –
नोबेल पुरस्कार (1998) – “कल्याणकारी अर्थशास्त्र” में उनके योगदान के लिए.
भारत रत्न (1999) – भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा.
नेशनल ह्यूमैनिटीज मेडल (2012) – अमेरिकी राष्ट्रपति ने उन्हें मानविकी के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया.
अमर्त्य सेन ने दुनिया भर में न केवल अर्थशास्त्र के क्षेत्र में, बल्कि मानवाधिकार, शिक्षा, और सामाजिक न्याय में भी अपना गहरा प्रभाव छोड़ा है. उनके सिद्धांतों और लेखन ने दुनिया भर के नीति-निर्माताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया है, जिससे वे आज भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक चिंतक के रूप में सम्मानित हैं.
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संगीतकार लक्ष्मीकांत
लक्ष्मीकांत भारतीय संगीत उद्योग में एक संगीतकार थे, जिन्होंने अपने संगीत साथी प्यारेलाल के साथ मिलकर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी बनाई. यह जोड़ी भारतीय सिनेमा के सबसे सफल और लोकप्रिय संगीत निर्देशकों में से एक मानी जाती है. लक्ष्मीकांत का जन्म 3 नवंबर 1937 को हुआ और उनका निधन 25 मई 1998 को हुआ था.
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी ने वर्ष 1960 के दशक से लेकर वर्ष 1990 के दशक तक हिंदी सिनेमा के लिए हजारों गाने बनाए, जिनमें कई अत्यधिक सफल और यादगार रचनाएं शामिल हैं. उनका संगीत अक्सर उत्सवी, भावपूर्ण और मेलोडियस होता था. इस जोड़ी ने “दोस्ती” (1964), “मिलन” (1967), “बॉबी” (1973), “रोटी कपड़ा और मकान” (1974), और “सत्यम शिवम सुंदरम” (1978) जैसी कई हिट फिल्मों के लिए संगीत दिया.
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी ने न केवल फिल्मी गीतों में, बल्कि भजनों, ग़ज़लों और यहाँ तक कि क्लासिकल संगीत में भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया. उनके संगीत में विविधता और गहराई दोनों ही थी, और उन्होंने भारतीय संगीत को एक नई दिशा दी. लक्ष्मीकांत का योगदान भारतीय संगीत जगत में अमिट छाप छोड़ गया है, और उनकी धुनें आज भी लोकप्रिय हैं.
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स्वामी चिन्ना जियर
स्वामी चिन्ना जियर (पूरा नाम: श्री त्रिदंडी श्रीमन्नारायण रामानुज चिन्ना जियर स्वामी) एक प्रसिद्ध भारतीय संत, वैदिक विद्वान, और श्रीवैष्णव परंपरा के आध्यात्मिक नेता हैं. वे श्रीरामानुजाचार्य की परंपरा का अनुसरण करते हैं और वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार में विशेष भूमिका निभाते हैं. वे श्रीवैष्णव संप्रदाय की शिक्षा और धार्मिक विचारों को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं.
स्वामी चिन्ना जियर का जन्म 3 नवंबर 1956 को आंध्र प्रदेश में हुआ था. उनका जन्म नाम के. एस. रंगारामानुजाचार्य था. वे एक साधारण परिवार से थे और प्रारंभ से ही धार्मिक रुचियों से प्रेरित थे. कम उम्र में ही उन्होंने वैदिक शिक्षा और श्रीवैष्णव धर्म के सिद्धांतों में गहरी रुचि दिखाई और इस परंपरा के अध्ययन में गहनता से संलग्न हो गए. स्वामी चिन्ना जियर ने अपना आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ किया और श्रीवैष्णव परंपरा के प्रचार में अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने स्वामी पेड्दा जियर से दीक्षा प्राप्त की, जो उनके आध्यात्मिक गुरु बने. गुरु की प्रेरणा से उन्होंने श्रीवैष्णव संप्रदाय के आदर्शों का पालन करते हुए पूरे भारत में धर्म और वेदांत का प्रचार-प्रसार किया.
स्वामी चिन्ना जियर ने वैदिक शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाने के लिए कई गुरुकुलों और शिक्षा संस्थानों की स्थापना की. उनकी संस्था जेईईआर एजुकेशनल ट्रस्ट और जीआरआई ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशन्स द्वारा वैदिक परंपराओं के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रचार किया जाता है.स्वामी चिन्ना जियर की देखरेख में वर्ष 2017 में हैदराबाद के पास भगवान रामानुजाचार्य की भव्य प्रतिमा का निर्माण हुआ, जिसे “स्टैच्यू ऑफ इक्वलिटी” के नाम से जाना जाता है. यह मूर्ति समानता और समरसता का प्रतीक है और इसे बनाने का उद्देश्य समाज में समानता का संदेश फैलाना है.
स्वामी चिन्ना जियर ने कई देशों में श्रीवैष्णव परंपरा का प्रचार किया है. उन्होंने अमेरिका, यूरोप, और अन्य देशों में प्रवास के दौरान श्रीवैष्णव संप्रदाय की विचारधारा को बढ़ावा दिया और वहां के भक्तों को रामानुजाचार्य के सिद्धांतों से अवगत कराया. स्वामी चिन्ना जियर ने अनेक सामाजिक कार्यों में भी योगदान दिया है. उन्होंने बाढ़, सूखा, और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए अनेक राहत कार्य किए हैं. उनके अनुयायियों द्वारा विभिन्न सामाजिक और चिकित्सा शिविरों का भी आयोजन किया जाता है.
स्वामी चिन्ना जियर का जीवन रामानुजाचार्य की शिक्षाओं से प्रेरित है. उनका मानना है कि समाज में समानता, प्रेम, और करुणा का प्रसार होना चाहिए. उनके अनुसार, आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ समाज सेवा भी एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है. वे मानते हैं कि सच्चा भक्ति मार्ग वही है जिसमें आत्म-कल्याण के साथ समाज का कल्याण भी निहित हो.
स्वामी चिन्ना जियर भारतीय संस्कृति और परंपरा के महत्वपूर्ण संरक्षक माने जाते हैं. उनके नेतृत्व में श्रीवैष्णव संप्रदाय का प्रचार-प्रसार हुआ है, और उन्होंने समाज को एकता और समानता का संदेश दिया है. उनके योगदान और शिक्षाओं के कारण वे आज लाखों भक्तों के प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं.
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महावीर चक्र विजेता दीवान सिंह दानू
दीवान सिंह दानू भारतीय सेना के एक बहादुर और सम्मानित सैनिक थे, जिन्होंने अपने अदम्य साहस और वीरता के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था. महावीर चक्र भारतीय सेना का दूसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार है, जिसे युद्ध के दौरान असाधारण बहादुरी और आत्म-बलिदान के लिए प्रदान किया जाता है.
दीवान सिंह दानू का जन्म 4 मार्च, 1923 को पुरदम, पिथौरागढ़, उत्तराखंड राज्य में हुआ था. वे एक साधारण परिवार से थे, और कम उम्र में ही भारतीय सेना में शामिल होकर देश की सेवा करने का संकल्प लिया। उनका जीवन देशभक्ति और कर्तव्यपरायणता का प्रतीक था. दीवान सिंह दानू ने सेना में रहते हुए कई महत्वपूर्ण अभियानों में भाग लिया। वे अपने अदम्य साहस और अनुशासन के लिए जाने जाते थे. उनके शौर्य की सबसे महत्वपूर्ण घटना वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान सामने आई.
वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में दीवान सिंह दानू ने अद्वितीय साहस का प्रदर्शन किया. इस युद्ध में उन्होंने अपने साथियों के साथ दुश्मन पर जोरदार हमला किया और उनकी पोस्ट पर कब्जा जमाया. उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपने साथियों की सुरक्षा के लिए अद्वितीय साहस का परिचय दिया. उनके इस योगदान ने न केवल उनके साथियों की जान बचाई, बल्कि भारतीय सेना को महत्वपूर्ण विजय दिलाने में भी सहायता की. दीवान सिंह दानू तीन नवंबर 1947 को बड़गाम हवाई अड्डे को कब्जे में लेने के लिए कबालियों से मोर्चा लेते हुए शहीद हो गए थे. उनकी वीरता और साहस को सम्मानित करते हुए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. यह सम्मान उनके द्वारा किए गए बलिदान और देश के प्रति उनके अमूल्य योगदान को मान्यता देने के लिए दिया गया. दीवान सिंह दानू का जीवन आज भी भारतीय सेना और युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनके साहस और समर्पण ने भारतीय सेना में सेवा देने वाले हजारों सैनिकों को प्रेरित किया है. उनकी शहादत भारत के वीर सपूतों की सूची में एक अद्वितीय स्थान रखती है, और देश उनके बलिदान को हमेशा सम्मान के साथ याद रखेगा.
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मेजर सोमनाथ शर्मा
मेजर सोमनाथ शर्मा प्रथम भारतीय शहीद में से एक हैं, और उन्होंने भारतीय सेना की जान पर खेल कर अपने देश की सुरक्षा के लिए अपना जीवन न्योछावर किया.
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को जम्मू में हुआ था. उन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय आर्मी में सेवा की और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1947-1948) के समय जम्मू और कश्मीर में लड़ा. मेजर सोमनाथ शर्मा 3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम मिला और उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी. दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीन तरफ से घेरकर हमला किया. उन्होंने अपनी पोस्ट पर शत्रुओं के खिलाफ बहुत बड़ी वीरता और संघर्षशीलता से लड़ते हुये वीरगति प्राप्त हुये।
मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना के पहले सैनिक हैं जिन्हें परामवीर चक्र से सम्मानित किया गया. वे प्रथम भारतीय जवान थे जिन्होंने इस उच्च गौरवित सम्मान को प्राप्त किया. उनका साहस और वीरता आज भी भारतीय सेना के जवानों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.
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लोक गायिका रेशमा
रेशमा एक पाकिस्तानी लोक गायिका थीं, जिन्हें अपनी अनोखी आवाज और भावपूर्ण गायकी के लिए जाना जाता था। उनका जन्म 1947 में राजस्थान, भारत में एक घुमंतू परिवार में हुआ था. विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया, जहाँ रेशमा ने अपने संगीत कैरियर की शुरुआत की. उनके गीत भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में समान रूप से लोकप्रिय हुए, और उनकी गायकी ने सीमाओं के पार लाखों दिलों को छुआ.
रेशमा का संगीत से कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं था, लेकिन उनकी आवाज में एक विशेष मिठास और गहराई थी. 12 साल की उम्र में उन्हें एक सूफी दरगाह पर गाते हुए देखा गया था, जहाँ से उनके कैरियर की शुरुआत हुई. पाकिस्तानी रेडियो ने उनकी आवाज को पहली बार रिकॉर्ड किया, और उनका गाया गीत “लाल मेरी पट रखियो” तुरंत ही लोकप्रिय हो गया. इसके बाद उन्होंने कई अन्य प्रसिद्ध गीत गाए, जिनमें से अधिकांश सूफी और पंजाबी लोक शैली में थे.
प्रसिद्ध गीत: –
“दमादम मस्त कलंदर”: – यह सूफी गीत उनके कैरियर का एक मुख्य आधार बना. उनकी इस प्रस्तुति ने उनकी ख्याति को चारों ओर फैला दिया.
“लंबी जुदाई”: – यह गीत भारतीय फिल्म हीरो के लिए गाया गया था और यह आज भी एक सदाबहार गीत माना जाता है.
“हाय ओ रब्बा, नहीं लगदा दिल मेरा”: – यह गीत भी रेशमा की भावपूर्ण आवाज का एक अद्भुत उदाहरण है, जिसमें दर्द और प्रेम की भावना बखूबी झलकती है.
रेशमा की गायकी में एक विशेष प्रकार का सूफी तत्व था, जो उनके गीतों को आध्यात्मिक गहराई प्रदान करता था. उनकी आवाज में प्राकृतिक खुरदुरापन और भावनाओं की गहनता थी, जिससे श्रोताओं के दिलों में एक विशेष जगह बना पाईं. उन्होंने बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के जिस तरह से संगीत के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाई, वह सराहनीय है.
रेशमा को पाकिस्तान और भारत दोनों में कई सम्मानों से नवाजा गया. उन्हें पाकिस्तान सरकार द्वारा प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जो कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिया जाता है.
3 नवम्बर 2013 को रेशमा का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. उनका निधन संगीत जगत के लिए एक बड़ी क्षति थी. रेशमा की आवाज में वह जादू था जो श्रोताओं को हर बार सुनने पर मंत्रमुग्ध कर देता है. उनके गीत आज भी उनकी स्मृति को जीवंत रखते हैं, और उनके योगदान को भारतीय उपमहाद्वीप की संगीत परंपरा में हमेशा याद किया जाएगा.
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अन्य: –
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ की स्थापना: – 3 नवंबर 1838 को ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ की स्थापना ब्रिटिश राज के दौरान ‘बम्बई टाइम्स’ और ‘जर्नल ऑफ़ कामर्स’ के रूप में स्थापित किया गया था. वर्ष 1861 में ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ नाम दिया गया था.