
धुप-छांव -2.
प्रभात – एक शांत स्वभाव वाला लड़का, जो गांव की मिट्टी में पला-बढ़ा लेकिन शहर के अंधाधुंध उजालों में अपनी पहचान खोजने आया. वह न तो पूरी तरह धूप है, न पूरी छांव – बल्कि उन दोनों के बीच की द्वंद्व भरी रेखा है.
शहर की गलियों में घूमते हुए प्रभात अक्सर अपने गांव के आम के पेड़ की छांव को याद करता – जहां वह दादी की कहानियाँ सुनते-सुनते बड़ा हुआ था. लेकिन यहां… यहां तो हर चेहरा तेज़ रौशनी में छुपा कोई अंधेरा था.
कॉलेज में उसे अर्पिता मिली – तेज़, आत्मविश्वासी, और शहर की चकाचौंध में रमी हुई. वह प्रभात के भीतर की छांव को पहचान गई और कहती, “तुम्हारी आंखों में उजाला है—but it hesitates.”
प्रभात ने कुछ कहानियाँ लिखनी शुरू कीं. शहर की भागदौड़, गाँव की स्मृतियाँ, अपने अंदर की खाली जगहों को भरने के लिए. हर कहानी एक द्वार खोलती, पर पूरा घर अब भी अधूरा रहता.
एक दिन अर्पिता बोली, “तुम हमेशा ‘बीच में’ क्यों जीते हो, प्रभात? धूप में चलो या छांव में बैठो, यह आधा-आधा जज़्बा न तुम्हें चैन देगा, न पहचान.”
वह रात लंबी थी.
अगली सुबह प्रभात ने अपनी सबसे नई कहानी का शीर्षक रखा: “धूप से छांव तक और फिर लौट आना.”
प्रभात वो पात्र है जो हर उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी परछाई से डरता नहीं, लेकिन उसमें गुम भी नहीं होना चाहता. वह चुनता है—हर सुबह धूप में निकलना और शाम को छांव में लौटना.
शेष भाग अगले अंक में…,