स्वामी रामतीर्थ
स्वामी रामतीर्थ एक महान भारतीय संत, दार्शनिक, और वेदांत के अद्वैतवादी प्रचारक थे. उनका असली नाम तीरथ राम था, और उनका जन्म पंजाब के गुजरांवाला (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था. वे अपने असाधारण आध्यात्मिक ज्ञान, वेदांत के सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार, और पश्चिमी दुनिया में भारतीय दर्शन को परिचित कराने के लिए प्रसिद्ध हैं.
स्वामी रामतीर्थ का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, और वे बचपन से ही प्रतिभाशाली थे. उन्होंने गणित में महारत हासिल की और लाहौर में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया. हालांकि, सांसारिक जीवन से उन्हें संतुष्टि नहीं मिली, और अंततः उन्होंने आध्यात्मिकता की ओर रुख किया. उन्होंने अपने जीवन को वेदांत के सिद्धांतों के अध्ययन और ध्यान में समर्पित कर दिया और अपने छात्रों और अनुयायियों को आत्मा की एकता, ईश्वर के साथ एकत्व और आत्मज्ञान के महत्व को सिखाया.
स्वामी रामतीर्थ ने युवावस्था में ही सांसारिक जीवन का त्याग किया और संन्यास ग्रहण कर लिया. वे हिमालय की ओर चले गए और वहां गहरे ध्यान और साधना में लीन हो गए. उनकी शिक्षाओं में अद्वैत वेदांत का प्रमुख स्थान था, जिसका आधार यह है कि आत्मा और ब्रह्म (सर्वोच्च चेतना) एक हैं। उनके विचारों ने आत्म-ज्ञान और ईश्वर की अनुभूति को जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य बताया.
स्वामी रामतीर्थ ने भारत से बाहर, विशेष रूप से अमेरिका और जापान में भी प्रवास किया और वहां भारतीय वेदांत के अद्वैत सिद्धांत का प्रचार किया. उनके प्रवचनों ने पश्चिमी दुनिया को भारतीय दर्शन और ध्यान की शक्ति से परिचित कराया। उन्होंने आत्मानुभूति, शाश्वत आनंद, और सेवा के महत्व पर जोर दिया.
शिक्षाएँ: –
अद्वैत वेदांत: – उन्होंने जीवन के अद्वैत (अर्थात् आत्मा और ब्रह्म की एकता) पर जोर दिया. उनका कहना था कि ईश्वर और आत्मा एक ही हैं, और यही जीवन का अंतिम सत्य है.
आत्म-ज्ञान: – उन्होंने कहा कि सच्चा आनंद और शांति केवल आत्मज्ञान के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है.
सकारात्मकता और सेवा: – स्वामी रामतीर्थ ने सकारात्मक जीवन जीने और दूसरों की सेवा करने का संदेश दिया.
विश्व बंधुत्व: – उन्होंने समस्त मानव जाति को एक परिवार माना और भेदभाव से ऊपर उठने का उपदेश दिया.
स्वामी रामतीर्थ ने मात्र 33 वर्ष की आयु में हिमालय की गंगा नदी में समाधि ले ली. उनकी शिक्षाएँ और विचार आज भी दुनिया भर में लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं. उनका जीवन एक उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति ने आत्मज्ञान और वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से मानवता की सेवा की.
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स्वतंत्रता सेनानी अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे, जो विशेष रूप से काकोरी कांड के लिए प्रसिद्ध हैं. वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन सेनानियों में से थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में योगदान दिया. उनका जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था. अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक माने जाते हैं और उन्होंने अपने जीवन का बलिदान भारत की आज़ादी के लिए दिया.
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. बचपन से ही वे देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित थे. वे शुरू से ही भारत को अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए. अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के बेहद करीबी सहयोगी थे, जो हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के नेता थे. अशफ़ाक़ और बिस्मिल की मित्रता हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती थी. दोनों ने मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कई योजनाओं पर काम किया.
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी ट्रेन डकैती में था. इस डकैती का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार का खजाना लूटकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाना था. अशफ़ाक़ और उनके साथी राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, और अन्य क्रांतिकारियों ने यह योजना बनाई. डकैती के बाद ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों के खिलाफ कड़ा अभियान चलाया, जिसमें अशफ़ाक़ और उनके कई साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया.
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को वर्ष 1926 में गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया. उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के सामने कभी झुकने से इनकार कर दिया और देश के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को तैयार हो गए. उन्हें काकोरी कांड के अन्य सहयोगियों के साथ फांसी की सजा सुनाई गई. 19 दिसंबर 1927 को, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह के साथ, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को भी फैजाबाद जेल में फांसी दे दी गई.
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होने दिया. वे वीरता, साहस और देशभक्ति के प्रतीक माने जाते हैं. उनकी दोस्ती और बलिदान ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक महत्वपूर्ण दिशा दी.
उनकी शहादत ने स्वतंत्रता संग्राम के कई युवाओं को प्रेरित किया और उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श स्थापित किया कि कैसे धार्मिक और सामाजिक विभाजन से ऊपर उठकर देश की सेवा की जा सकती है.
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त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेल
त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और सहकारी आंदोलन के अग्रदूत थे, जिन्हें विशेष रूप से अमूल डेयरी सहकारी संस्था के संस्थापक के रूप में जाने जातें है. उनका योगदान भारतीय कृषि क्षेत्र, विशेष रूप से दुग्ध उद्योग, में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए महत्वपूर्ण है.
त्रिभुवनदास पटेल का जन्म 22 अक्टूबर 1903 को गुजरात के आनंद जिले में हुआ था. वे एक सामान्य कृषक परिवार से थे और प्रारंभ से ही ग्रामीण जीवन और किसानों की समस्याओं से परिचित थे. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया.
त्रिभुवनदास पटेल का सबसे महत्वपूर्ण योगदान भारतीय दुग्ध उद्योग में था. उन्होंने गुजरात के किसानों की दुग्ध उत्पादन संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए एक सहकारी आंदोलन की नींव रखी. इसके तहत, वर्ष 1946 में उन्होंने काइरा डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन की स्थापना की, जो बाद में अमूल के नाम से प्रसिद्ध हुई.
अमूल के गठन का उद्देश्य किसानों को दूध का उचित मूल्य दिलाना और उन्हें बीच के बिचौलियों से मुक्ति दिलाना था. त्रिभुवनदास पटेल ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. वर्गीस कुरियन को इस सहकारी आंदोलन से जोड़ा, जिन्होंने इसे एक सफल मॉडल में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह सहकारी मॉडल भारत में “श्वेत क्रांति” का आधार बना, जिससे देश दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर बना और दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बन गया.
त्रिभुवनदास पटेल ने न केवल दुग्ध उत्पादन में सुधार किया, बल्कि उन्होंने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने और उनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने में भी अहम भूमिका निभाई. उन्हें वर्ष 1964 में “पद्म भूषण” से सम्मानित किया गया, जो भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक है, उनके सहकारी आंदोलन और किसानों की भलाई के लिए उनके योगदान के लिए.
त्रिभुवनदास पटेल का जीवन किसानों की सेवा और सहकारिता की शक्ति का प्रतीक है. उनके द्वारा स्थापित अमूल आज भी भारत का सबसे बड़ा दुग्ध सहकारी संगठन है और उनके सहकारी मॉडल को दुनिया भर में सराहा गया है. उनके द्वारा शुरू किया गया आंदोलन न केवल भारतीय किसानों के लिए एक प्रेरणा है, बल्कि यह बताता है कि कैसे संगठित प्रयासों से आर्थिक और सामाजिक विकास लाया जा सकता है. उनकी मृत्यु 03 जून 1994 को आनंद में हुई, लेकिन उनका योगदान भारतीय कृषि और डेयरी उद्योग में आज भी जीवंत है.
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अभिनेता कादर खान
कादर खान भारतीय सिनेमा के अभिनेता, संवाद लेखक, पटकथा लेखक, और हास्य कलाकार थे. उन्होंने बॉलीवुड में 300 से अधिक फिल्मों में काम किया और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के लिए जाने जाते थे. उनके योगदान ने न केवल फिल्मी जगत को समृद्ध किया, बल्कि उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे चहेते और आदरणीय कलाकारों में से एक बना दिया.
कादर खान का जन्म 22 अक्टूबर 1937 को अफगानिस्तान के काबुल में हुआ था. उनके पिता का नाम अब्दुल रहमान खान और मां का नाम इकराम खानम था. कादर खान का परिवार बाद में मुंबई आकर बस गया. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में ही पूरी की. कादर खान ने मुंबई के इस्माइल यूसुफ कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और कुछ समय तक एक कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया.
कादर खान का फिल्मी कैरियर वर्ष 1970 के दशक में शुरू हुआ. उन्होंने अभिनेता दिलीप कुमार की प्रेरणा से फिल्म “दाग” (1973) में अभिनय किया. इसके बाद उन्होंने कई बड़ी फिल्मों में काम किया और वर्ष 1970 – 80 के दशक में बॉलीवुड के मुख्य हास्य और सहायक अभिनेताओं में से एक बन गए.
कादर खान का विशेष योगदान फिल्मों में संवाद लेखन में भी था. उन्होंने कई सुपरहिट फिल्मों के संवाद लिखे, जैसे: – अमर अकबर एंथनी (1977), कुली (1983), शराबी (1984), लावारिस (1981), सत्ते पे सत्ता (1982). उनकी संवाद लेखन शैली ने उन्हें सदी के सबसे प्रतिभाशाली लेखकों में शामिल कर दिया. उनके संवाद आज भी बॉलीवुड के प्रशंसकों के बीच प्रसिद्ध हैं।
कादर खान की अभिनय शैली विविध थी. उन्होंने न केवल हास्य भूमिकाओं में अपनी पहचान बनाई, बल्कि नकारात्मक और गंभीर भूमिकाओं में भी अपना लोहा मनवाया. उनके हास्य संवाद और समय पर की गई कॉमेडी ने उन्हें जनता के बीच खासा लोकप्रिय बनाया. कादर खान और गोविंदा की जोड़ी ने वर्ष 1990 के दशक में कई हिट कॉमेडी फिल्में दीं, जिनमें: – दूल्हे राजा (1998), हीरो नंबर 1 (1997), हसीना मान जाएगी (1999), आंटी नंबर 1 (1998). उनकी कॉमिक टाइमिंग और एक्सप्रेशंस ने इन फिल्मों को यादगार बना दिया. कादर खान ने कई यादगार फिल्मों में काम किया, जिनमें उनकी प्रमुख भूमिकाओं और संवादों के लिए उन्हें सराहा गया.
प्रमुख फिल्में – : कुली, हिम्मतवाला,बाप नंबरी बेटा दस नंबरी, दूल्हे राजा, बोल राधा बोल.
कादर खान ने अपने लंबे कैरियर में कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त किए. उन्हें वर्ष 2013 में साहित्य शिरोमणि पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो हिंदी सिनेमा में उनके योगदान के लिए दिया गया. इसके अलावा, उन्होंने कई फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार भी जीते.
कादर खान का स्वास्थ्य वर्ष 2010 के दशक के अंत में बिगड़ गया. वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे और कनाडा में अपने परिवार के साथ रह रहे थे. 31 दिसंबर 2018 को 81 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया. कादर खान ने अपने संवाद लेखन और अभिनय के माध्यम से भारतीय सिनेमा में अमिट छाप छोड़ी. उनके योगदान को सदा याद किया जाएगा, और वे बॉलीवुड के सबसे चहेते और सम्मानित कलाकारों में से एक के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे.
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अभिनेत्री परिणीति चोपड़ा
परिणीति चोपड़ा एक भारतीय अभिनेत्री हैं, जो हिंदी सिनेमा में अपने काम के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने अपने अभिनय कौशल और बहुमुखी प्रतिभा के कारण बॉलीवुड में अपनी एक खास पहचान बनाई है. परिणीति का फिल्मी कैरियर शानदार रहा है और वे कई हिट फिल्मों में नजर आ चुकी हैं.
परिणीति चोपड़ा का जन्म 22 अक्टूबर 1988 को अंबाला, हरियाणा में हुआ था. उनके पिता पवन चोपड़ा एक व्यापारी हैं और उनकी माँ रीना चोपड़ा गृहिणी हैं. परिणीति, प्रियंका चोपड़ा की कज़िन हैं, जो एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं.
परिणीति ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अंबाला से पूरी की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए लंदन चली गईं. उन्होंने मैनचेस्टर बिजनेस स्कूल से बिजनेस, फाइनेंस और इकोनॉमिक्स में ऑनर्स की डिग्री प्राप्त की. परिणीति पढ़ाई में हमेशा से अव्वल थीं और उनका सपना था कि वे एक निवेश बैंकर बनें. हालांकि, आर्थिक मंदी के कारण उन्हें यह क्षेत्र छोड़ना पड़ा और वे भारत वापस आ गईं.
परिणीति चोपड़ा ने अपने कैरियर की शुरुआत यश राज फिल्म्स के साथ एक जनसंपर्क सलाहकार के रूप में की थी. वहां काम करने के दौरान उन्हें फिल्मों में काम करने का अवसर मिला. उन्होंने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत वर्ष 2011 में आई फिल्म “लेडीज़ वर्सेस रिकी बहल” से की, जिसमें उनके अभिनय को खूब सराहा गया. इस फिल्म के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री का पुरस्कार मिला. इसके बाद उनकी अगली फिल्म “इश्कज़ादे” (2012) आई, जिसमें वे अर्जुन कपूर के साथ मुख्य भूमिका में नजर आईं. इस फिल्म में उनके अभिनय की बहुत प्रशंसा हुई और परिणीति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली.
प्रमुख फिल्में: – इश्कज़ादे (2012), शुद्ध देसी रोमांस (2013), हंसी तो फंसी (2014), किल दिल (2014), मेरी प्यारी बिंदु (2017), गोलमाल अगेन (2017), केसरी (2019), संदीप और पिंकी फरार (2021), साइना (2021). जिसमें उन्होंने बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल का किरदार निभाया.
परिणीति को एक शानदार और स्वाभाविक अभिनेत्री माना जाता है. वे अपने किरदारों में गहराई लाने के लिए जानी जाती हैं, चाहे वह रोमांटिक हो, कॉमेडी या गंभीर भूमिका. इश्कज़ादे और हंसी तो फंसी में उनके अभिनय को क्रिटिक्स और दर्शकों दोनों ने सराहा.
परिणीति चोपड़ा को उनके फिल्मी कैरियर में कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं, जिनमें: –
फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड (सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री) – लेडीज वर्सेस रिकी बहल,
स्पेशल मेंशन, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार – इश्कज़ादे,
स्टाइल आइकॉन और बेस्ट एक्ट्रेस के कई अवार्ड्स,
परिणीति चोपड़ा ने वर्ष 2023 में भारतीय राजनेता राघव चड्ढा से शादी की. दोनों की शादी मीडिया और फैंस के बीच चर्चा का विषय बनी. परिणीति के व्यक्तिगत जीवन को हमेशा सादगी और अनुशासन के लिए जाना जाता है. वे एक फिटनेस और स्वास्थ्य प्रेमी हैं और अक्सर अपने सोशल मीडिया पर जीवनशैली से संबंधित बातें साझा करती रहती हैं.
परिणीति सामाजिक मुद्दों पर भी सक्रिय हैं और शिक्षा तथा पर्यावरण से जुड़े अभियानों में भाग लेती हैं. वे अपने फैंस और युवा पीढ़ी को प्रेरित करने के लिए लगातार काम कर रही हैं, खासकर लड़कियों की शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में. परिणीति चोपड़ा बॉलीवुड की उन अभिनेत्रियों में से एक हैं जिन्होंने न केवल अपनी खूबसूरती से, बल्कि अपने अभिनय कौशल से भी एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है. उनकी मेहनत, समर्पण और विविधता ने उन्हें आज की पीढ़ी की एक प्रमुख अभिनेत्री बना दिया है.
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मेवाड़ महाराणा राजसिंह
महाराणा राज सिंह मेवाड़ के एक महान शासक थे, जो अपनी वीरता, शासन कुशलता और मुगलों के खिलाफ संघर्ष के लिए जाने जाते हैं. वे मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश से थे और महाराणा जगत सिंह प्रथम के पुत्र थे. महाराणा राज सिंह का शासनकाल वर्ष 1652 – 80 तक रहा, और इस दौरान उन्होंने मेवाड़ की स्वतंत्रता और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए.
महाराणा राज सिंह का जन्म 24 सितंबर 1629 को हुआ था. वे मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश के एक प्रतिष्ठित राजा थे और अपनी वीरता तथा न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे. उनका लालन-पालन एक योद्धा के रूप में हुआ था, और उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन से ही प्रशासन और युद्ध की रणनीतियों में महारत हासिल की. राज सिंह ने वर्ष 1652 में अपने पिता महाराणा जगत सिंह प्रथम के निधन के बाद मेवाड़ की गद्दी संभाली. उनका शासनकाल मेवाड़ के लिए राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था. उन्होंने न केवल आंतरिक सुधार किए, बल्कि मुगल आक्रमणकारियों के खिलाफ भी कड़ा संघर्ष किया.
महाराणा राज सिंह का सबसे महत्वपूर्ण कार्य और योगदान मुगलों के खिलाफ संघर्ष करना था. उन्होंने मेवाड़ की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए मुगल सम्राट औरंगज़ेब से लोहा लिया. महाराणा राज सिंह ने न केवल अपने राज्य की सीमाओं की रक्षा की, बल्कि उन्होंने औरंगज़ेब के धार्मिक कट्टरता और आक्रमण के खिलाफ हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा की.
जब औरंगज़ेब ने चिंतामणि मंदिर और अन्य हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया, तो महाराणा राज सिंह ने इसका कड़ा विरोध किया. उन्होंने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति के सम्मान और सुरक्षा के लिए मुगलों से संघर्ष किया. जब औरंगज़ेब ने जबरन चारुमति से शादी करने की कोशिश की, तो महाराणा राज सिंह ने राजकुमारी की सुरक्षा के लिए युद्ध किया और उसे मुगलों से बचाया। इससे उनके साहस और वीरता का परिचय मिलता है.
महाराणा राज सिंह ने अपने शासनकाल में मेवाड़ की सुरक्षा के लिए कई किलों का निर्माण और सुदृढ़ीकरण किया. इनमें से एक महत्वपूर्ण निर्माण अमरगढ़ किला था, जो मेवाड़ राज्य की सुरक्षा के लिए बनाया गया था. उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं की रक्षा करने के लिए रणनीतिक रूप से किलों का निर्माण कराया, जिससे मेवाड़ को मुगलों और अन्य आक्रमणकारियों से सुरक्षित रखा जा सके. महाराणा राज सिंह एक दूरदर्शी शासक थे, जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण और जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया. उन्होंने कई जलाशयों, तालाबों, और बांधों का निर्माण कराया ताकि राज्य में पानी की उपलब्धता बनी रहे. उनके द्वारा बनवाए गए जल स्रोत आज भी मेवाड़ के कई क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं.
महाराणा राज सिंह कला और संस्कृति के संरक्षक भी थे. उन्होंने मेवाड़ में कला, स्थापत्य और संगीत को प्रोत्साहन दिया. उनके शासनकाल में मेवाड़ की चित्रकला शैली “मेवाड़ पेंटिंग्स” का विकास हुआ, जो आज भारतीय चित्रकला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानी जाती है. उनकी दिलचस्पी मंदिर निर्माण में भी थी, और उन्होंने कई भव्य मंदिरों का निर्माण कराया.
महाराणा राज सिंह का निधन 22 अक्टूबर 1680 को हुआ. वे अपने शौर्य, न्यायप्रियता, और धार्मिक सहिष्णुता के लिए हमेशा याद किए जाते हैं. उनके शासनकाल में मेवाड़ ने न केवल सैन्य और राजनीतिक क्षेत्र में उन्नति की, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी मेवाड़ का उत्कर्ष हुआ. उनकी वीरता और देशभक्ति की गाथाएँ आज भी राजस्थान और भारत के अन्य हिस्सों में गाई जाती हैं. उन्होंने अपने राज्य की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आजीवन संघर्ष किया और अपने आदर्शों और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया.
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स्वतन्त्रता सेनानी विट्ठलभाई पटेल
विट्ठलभाई पटेल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और बैरिस्टर थे. वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले व्यक्तियों में से एक थे और उनके छोटे भाई सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ उनकी भूमिका स्वतंत्रता आंदोलन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही. विट्ठलभाई पटेल भारत के पहले निर्वाचित अध्यक्ष (प्रेजिडेंट) थे और ब्रिटिश भारत के केंद्रीय विधान सभा के अध्यक्ष बनने वाले पहले भारतीय भी थे. उनका जीवन भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की दिशा में कई महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है.
विट्ठलभाई पटेल का जन्म 27 सितंबर 1873 को गुजरात के नडियाद में एक कृषक परिवार में हुआ था. वे परिवार में सरदार वल्लभभाई पटेल के बड़े भाई थे. बचपन से ही उनकी शिक्षा में रुचि थी और उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गुजरात में पूरी की. उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड का रुख किया, जहां उन्होंने बैरिस्टर की डिग्री हासिल की. इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में गहन जानकारी प्राप्त की और भारतीय राजनीति में सक्रिय भाग लेने का मन बनाया. विट्ठलभाई पटेल का राजनीतिक जीवन वर्ष 1900 के दशक में शुरू हुआ, जब वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए. उन्होंने स्वदेशी आंदोलन और अन्य भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेना शुरू किया.
वर्ष 1923 में, विट्ठलभाई पटेल को ब्रिटिश भारत की केंद्रीय विधान सभा का सदस्य चुना गया. इसके बाद वर्ष 1925 में वे इस सभा के अध्यक्ष बने, जो कि एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था. वे भारतीय केंद्रीय विधान सभा के पहले निर्वाचित भारतीय अध्यक्ष थे. इस भूमिका में, विट्ठलभाई ने अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता के कारण भारतीय जनता के बीच काफी सम्मान अर्जित किया. उन्होंने अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाई और भारतीय सदस्यों के अधिकारों की रक्षा की. उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों की नीतियों और क्रियाओं का जमकर विरोध किया और भारतीय मुद्दों को प्राथमिकता दी.
वर्ष 1930 के दशक में, विट्ठलभाई पटेल और महात्मा गांधी के बीच राजनीतिक मतभेद उभरने लगे. विट्ठलभाई का मानना था कि गांधीजी की असहयोग आंदोलन के स्थान पर वैधानिक तरीकों से स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया जाना चाहिए. इसी असहमति के कारण वे भारत छोड़कर यूरोप चले गए, जहाँ उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को वैकल्पिक दृष्टिकोण से बढ़ाने की कोशिश की.
यूरोप में, विट्ठलभाई पटेल ने क्रांतिकारी नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों से संपर्क किया. वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ घनिष्ठ संबंध में रहे और दोनों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विदेश से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत करने की योजना बनाई. विट्ठलभाई पटेल ने सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर भारत की आज़ादी के लिए एक वैश्विक मंच तैयार करने की कोशिश की और यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में कई कदम उठाए. विट्ठलभाई पटेल का स्वास्थ्य वर्ष 1930 के दशक में बिगड़ने लगा और 22 अक्टूबर 1933 को जिनेवा, स्विट्जरलैंड में उनका निधन हो गया. उनके निधन से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक बड़ा झटका लगा.
हालांकि, उनका योगदान आज भी भारतीय इतिहास में अमूल्य है. वे न केवल एक कुशल राजनीतिज्ञ थे, बल्कि एक स्वतंत्र विचारक और वैधानिक तरीके से स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ने के समर्थक थे. उनका जीवन भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणा स्रोत है. उनकी मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई सरदार वल्लभभाई पटेल ने उनकी विरासत को आगे बढ़ाया और भारत की आज़ादी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
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अन्य: –
- राजद्रोह का मुकदमा: – 22 अक्टूबर 1879 को ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला राजद्रोह का मुकदमा बसुदेव बलवानी फड़के के खिलाफ शुरू हुआ.
- बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना: – 22 अक्टूबर 1962 को भारत की सबसे बड़ी बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजना ‘भाखड़ा नांगल’ राष्ट्र को समर्पित की गई.
- सफल प्रक्षेपण: – 22 अक्टूबर 2008 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से चन्द्रयान-1 का सफल प्रक्षेपण किया गया. इस मिशन से चंद्रमा पर पानी के होने का पता लगा.
- कबड्डी विश्व कप: – 22 अक्टूबर 2016 को भारत ने ईरान को हराकर कबड्डी विश्व कप जीता.