
दोहा :-
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ।।
वाल्व्याससुमनजीमहाराज श्लोक का अर्थ बताते हुए कहते है कि, वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरो को बुलाया, सेनापतियो के समूह आ गए. वानर-भालुओ के झुंड अनेक रंगो के है और उनमे अतुलनीय बल है.
चौपाई :-
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना ।।

श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, वे प्रभु के चरण कमलो मे सिर नवाते है. महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे है. श्रीरामजी ने वानरो की सारी सेना देखी . तब कमल नेत्रो से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली.
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए. तब श्रीरामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान किया. रास्ते में अनेकों सुन्दर और शुभ शकुन हुए.
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, जिनकी कीर्ति सब मंगलो से पूर्ण है उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है. प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया. उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे कि श्रीरामचन्द्रजी आ रहे है.
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, जानकी जी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हो रहे थे. सेना चली, जिसका वर्णन कौन कर सकता है? असंख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे है.
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, नख ही जिनके शस्त्र है, वे इच्छानुसार चलने वाले रीछ-वानर पर्वतो और वृक्षो को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे है. वे सिंह के समान गर्जना कर रहे है. उनके चलने और गर्जन से विभिन्न दिशाओ के हाथी विचलित होकर चिंग्घाड़ रहे है.
छंद :-
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, दिशाओ के हाथी चिंग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गए और काँपने लगी साथ ही समुन्द्र खलबला उठे. गंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में ही हर्षित हुए.
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, अब हमारे दुःख के दिन दूर हो गए. अनेको करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे है और करोड़ो ही दौड़ रहे है . प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी की जय हो, ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहो को गा रहे है.
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, उदार व परम श्रेष्ठ एवं महान् सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नही सह सकते , वे बार-बार घबड़ा जाते है और पुनः पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतो से पकड़ते है या यूँ कहें कि बार-बार दाँतो को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीचते हुए वे कैसे शोभा दे रहे है. मानो श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हो.
दोहा :-
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।
श्लोक का अर्थ बताते हुए महाराजजी कहते है कि, इस प्रकार कृपिधान श्रीरामजी समुन्द्र तट पर जा पहुँचे. अनेको रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे.
वालव्याससुमनजीमहाराज, महात्मा भवन,
श्रीरामजानकी मंदिर, राम कोट,
अयोध्या. 8544241710.